!! सा मा पा तू सरस्वती भगवती !!
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं । वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् । हस्ते स्फाटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां वन्दे ताम् परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥
अलंकार या पलटा :-
स्वरोंके विशिष्ट विशेष और नियमित रचना को अलंकार या पलटा कहा जाता है|
इसमें आरोह और अवरोह दोनों लिए जाते है |
उदा:- आरोह: सारेग, रेगम, गमप ...... पधनि,
धनिसां |
अवरोह: सांनिध, निधप, धपम
...... मगरे, गरेसा |
रागांग (राग रचना के नियम, जाती,)
राग रचना के नियम:
मनोरंजन के और रस उत्पन्न करनेवाली नियमबद्ध स्वर समूह को राग कहते है |
राग रचना के मुख्या चार नियम है|
१) राग में कम से कम पांच स्वर होना जरुरी है|
२) माध्यम और पंचम दोनों एक साथ वर्ज्य नहीं होना चाहिए |
३) एक ही स्वर दोनों स्वरोंके रूप में (शुद्ध और विकृत) पास पास नहीं आने
चाहिए | जैसे शुद्ध निषाद (नि)और कोमल निषाद (नि) दोनों
पास पास नहीं आने चाहिए |
४) आरोह, अवरोह, चलन(पकड़), गायन समय, वादी स्वर
और संवादी स्वर आदि नियमोंका पालन होना चाहिए |
जाती: रागो में आनेवाले स्वर संख्या के अनुसार राग की जाती का
वर्गीकरण किया गया है | राग में मुख्या तीन जाती है औडव षाड़व और संपूर्ण |
औडव: पांच स्वरों के राग की जाती औडव कहलाती है |
उदा: राग भूपाली, दुर्गा, वृन्दावाणी संरंग...
षाड़व: छह स्वरों के राग को षाड़व जाती का राग कहते है |
उदा: मारवा, पुरिया...
संपूर्ण: इस जाती के राग में पुरे सात स्वर होते है |
उदा: काफी, भैरव ...
कुछ रागो में आरोह -अवरोह सामान ही होते उस समय वह मिश्रा जाती के राग
कहलाते है | जैसे - औडव-षाड़व (राग केदार), औडव-संपूर्ण (राग
आसावरी), षाड़व-संपूर्ण (राग खमाज) आदि |
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